indian history : दरियादिली की इन्तहा – परदेश में हिंदुस्तानी कुआं…

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indian history रोचक कहानियों से भरा है भारत का इतिहास और दिलचस्प है उस दौर की कहानियां , ये किस्सा उस दौर का है जब ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसर एडवर्ड एंडरसन रीड ने बनारस के महाराजा को अपने देश के गांव की दयनीय हालात सुनाई थी. यह सुनकर महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह ने नागरिकों की मदद करने के लिए अपना खजाना खोल दिया. आइए जानते हैं लंदन में बना ‘महाराजा का कुआं’ का इतिहास.गुलामी के समय, ब्रिटिश अफसरों ने हिंदुस्तान के नागरिकों पर कई जुल्म किए. इस सब के बावजूद, जब एक अंग्रेज अफसर ने अपने यहां के नागरिकों का दर्द बयां किया तो बनारस के महाराज ने तुरंत मदद की पेशकश कर दी. जो काम वहां राजा को करना चाहिए था, वो काम भारत के महाराजा ने किया. लंदन के पास महाराजा का कुआं इसी मदद का एक गवाह है.

बाल्टी से खोदा 368 फीट गहरा कुआं indian history

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19वीं शताब्दी में लंदन से 60 किलोमीटर दूर, चिल्टर्न पहाड़ियों के पास, स्टोक रो नाम का एक छोटे से गांव में पानी की कमी थी. नागरिक गंदे तालाब और मिट्टी के गड्ढे में जमे पानी को इस्तेमाल करने पर मजबूर थे. ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसर एडवर्ड एंडरसन रीड ने जब यह बात बनारस के महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह को बताई, तो उनका दिल पसीज गया. उन्होंने नागरिकों की मदद करने के लिए अपना खजाना खोल दिया.

 


महाराजा ईश्वरी ने ब्रिटेन के गांव में कुएं बनाने के लिए बड़ी रकम दी. कुएं बनाने का काम 10 मार्च 1863 को शुरू हुआ. खराब रोशनी और गंदी हवा में बाल्टी से मिट्टी को हटाया गया. एक साल में आम नागरिकों के लिए कुआं बनकर तैयार हो गया. इसकी चौड़ाई 1.2 मीटर और गहराई 368 फीट थी. यह कुतुब मीनार से भी ज्यादा गहरा था जिसकी ऊंचाई 238 फीट है. काफी गहरा होने के कारण कुएं का पानी बहुत साफ था. कहते हैं कि पानी की बाल्टी खींचकर निकालने में पहले 10 मिनट लग जाया करते थे.


कुआं काफी भव्य बनाया गया. इसे बनाने में आज के करीब 40 लाख रुपए का भारी-भरकम खर्च आया. कुछ सालों बाद लगभग 1871 में कुएं के ऊपर एक सुनहरा हाथी भी जोड़ा गया. महाराजा ने न केवल कुएं के निर्माण के लिए दान दिया, बल्कि कुएं के रखरखाव और देखभाल के भुगतान के लिए उन्होंने चेरी की खेती के लिए जमीन भी खरीदी. अफसर रीड ने महाराजा के नाम पर चेरी के बाग को ईश्वर बाग रखा.

बनारस और लंदन का संपर्क फिर जुड़ा
हालांकि, महाराजा और अंग्रेजी अफसर की मौत के बाद कुएं का रखरखाव भी ठीक से नहीं हुआ. इस बीच कई सालों तक बनारस के कुएं का भारत से संपर्क टूट गया. यह संपर्क फिर जुड़ा जब महारानी एलिजाबेथ भारत यात्रा (1961) के दौरान बनारस आईं. यहां तत्कालीन महाराजा ने महारानी को कुएं के एक संगमरमर के मॉडल को तोहफे में दिया. इसके बाद 8 अप्रैल 1964 को प्रिंस फिलिप, महाराजा के प्रतिनिधियों के साथ, स्टोक रो गांव पहुंचे. महाराजा के प्रतिनिधि अपने साथ बनारस से पवित्र गंगा जल लेकर आए थे. इस गंगा जल को समारोहपूर्वक कुएं के पानी में मिलाकर एक बार फिर बनारस और लंदन के संपर्क को पुनर्जीवित किया गया.

 

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